Tuesday 1 September 2015

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.3

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2 से आगेे

यदि आरक्षण का भूत इसी तरह जीवित रहा तो इससे एक बड़ा नुकसान यह हो जाएगा कि जो थोड़े-बहुत संघर्षशील लोग आज अपने बल पर मुख्यधारा में मौजूद दिखते हैं, आरक्षण मिलने की स्थिति में वे मेहनत करना छोड़ सकते हैं। इसके अलावा अभी जिन गैर-आरक्षित निजी संस्थाओं में कुछ दरवाजे पिछड़ों के लिए खुले हुए हैं, खतरा है कि वहां उनसे से कहा जाए कि बेहतर होगा कि वे वहां जाएं, जहां उन्हें आरक्षण हासिल है। आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने की साजिश है। आजादी के छः दशक बाद भी यदि हम आरक्षण की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर। डॉ अम्बेडकर ने ही यह कहा था आरक्षण बैसाखी नही है।

ये भी सच है कि बहुत सी पिछड़ी जाति के लोग अभी भी मुख्य धारा मे शामिल होने से वंचित रह गये हैं और उनको आरक्षण की ज़रूरत है पर इतने साल आरक्षण होने के वावजूद भी वो वंचित क्यों रह गये है इसकी वजह जानने की कोशिश की किसी ने? नहीं? इसका कारण है जागरूकता का अभाव जो कि सही शिक्षा से ही संभव है और ग़रीबी जिसकी वजह से वो शिक्षित नहीं हो पा रहे और ऐसे लोग सिर्फ़ निचली जातियों मे नहीं बल्कि ऊँची जातियों में भी हैं। तो उनको आरक्षण क्यों नहीं?

आज देश मे एक व्यक्ति एक संविधान क्यों नही लागू होता? नौकरी के लिए परीक्षा में आरक्षण, पद में आरक्षण, प्रोमोशन में आरक्षण, योग्य लोगों को दरकिनार कर, कब तक इस आरक्षण के सहारे अयोग्य लोगों को हर आम व खास पदों पर बिठाया जाता रहेगा? कहीं दलित, महादलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा तो कहीं अनुसूचित जाति व जनजाति....महज नाम बदले हैं पर वोटबैंक के लालची नेताओं की नीयत नहीं। आरक्षण से किसी को नौकरी या पदोन्नति मिल सकती है, लेकिन कार्यकुशलता व पद की गरिमा बनाए रखने के लिए वो प्रतिभा कहाँ से लायेंगे, क्योंकि योग्यता किसी बाजार में नहीं बिकती। आज आरक्षण का जो धर्म और जाति पर आधारित ढांचा है वह पूरा का पूरा निरर्थक लगता है।

यदि आरक्षण देना ही है तो जातियों का अंतर खत्म कर देना चाहिए। आरक्षण सिर्फ गरीबों को दिया जाना चाहिए, भले ही वे किसी भी जाति के क्यों न हों फिर भी जिस देश का संविधान अपने आपको धर्म-निरपेक्ष, पंथ-निरपेक्ष और जाति-निरपेक्ष होने का दावा करता है उस देश में जातिगत और धर्म पर आधारित आरक्षण क्या संविधान की आत्मा पर ही कुठाराघात नहीं है। एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में आरक्षण का सिर्फ एक आधार हो सकता है वो है आर्थिक आधार लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।




अब सवाल ये उठता है कि- 
१. क्या तथाकथित ऊंची जातियों में गरीब और शोषित लोग नहीं है?
२. आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति हो तो क्या हानि होगी?
३. शिक्षा में आरक्षण पाकर जब सामान शिक्षा हासिल कर ली फिर नौकरियों और प्रोन्नति में आरक्षण क्या औचित्य क्या है?
४. वर्ण-व्यवस्था से तथाकथित नीची जातियां भी विरत नहीं फिर भी कुछ को सवर्ण कहकर समाज को टुकड़ों में बांटने के पीछे कौन सी मंशा काम कर रही है?
५. अंग्रेजो के दमन को मुट्ठी भर युवाओं ने नाकों चने चबवा दिए फिर आज का युवा इतना अकर्मण्य क्यों है?
६. क्या हम गन्दी राजनीति के आगे घुटने टेक चुके हैं?
७. क्या आज सत्य को सत्य और झूठ को झूठ कहने वाले लोगों का चरित्र दोगला हो चला है कि आप से एक हुंकार भी नहीं भरी ज़ाती?
जागो ! विचार करो ! सत्य को जिस संसाधन से व्यक्त कर सकते हो करो वर्ना आने वाली नस्लें तुमसे भी ज्यादा कायर पैदा हुईं तो इन काले अंग्रेजों एवं अपनी राजनीतिक दुकान शुरू करने के लिए जमीन की तलाश करते इन आरक्षण के ठेकेदारों के रहमो-करम पर जियेंगी ।

लेख के अन्य भाग

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.1
आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2

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