Wednesday 3 September 2014

वो सात दिन---कुछ खोया और कुछ सीखा

२४ अगस्त एक ऐसा दिन जिस दिन मुझे अपने परिवार के सामने स्वयं को प्रमाणित करना था..मेरी सिविल सर्विसेज की परीक्षा लेकिन मन पर इस बात का नहीं किसी और बात का दबाव...वो दबाव था या परेशानी नहीं समझ पाया....मेरे सबसे अच्छे मित्र की बहन का स्वास्थ्य ख़राब था और वो मेरे गृहनगर लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में एडमिट थी..उस दिन पहली बार एहसास हुआ की मेरे जीवन में उस व्यक्ति का कितना महत्व है मैंने कभी किसी भी इन्सान को खुद के इतना करीब नहीं आने दिया की वो मेरी जरुरत बन जाए लेकिन पता नहीं क्यों उसके परेशां चेहरे को देखकर मैं परेशान हो गया...मुझे आज भी नहीं पता कि वो मेरे बारे में क्या सोचता है लेकिन उसके प्रति मेरी भावनाएं निष्कपट हैं ये एहसास उस दिन पहली बार हुआ....
परीक्षा देने के बाद रात में लखनऊ के लिए निकला...सुबह पहुँचने के बाद से अगले सात दिन मेरे जीवन के अब तक के सबसे बुरे दिन थे..उसकी माँ स्थिति को देखकर मेरी आखों में आंसू आ गए...मैं कभी इतना कमजोर नहीं था कि आंसू ना रोक पाऊं ...वो कैसे हुआ पता नहीं बस हो गया...उस दिन से अगले 5 दिनों तक हर एक मंदिर में बस एक ही दुआ मांगी कि कैसे भी बस दीदी का स्वास्थ्य सही हो जाए ...इन दिनों में कई बार ऐसा समय आया जब मैं भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया....मन में ईश्वर पर अटूट विश्वास भी था कि वो कुछ गलत नहीं होने देंगे....इसी बीच तीसरे दिन दीदी का स्वास्थ्य अचानक बहुत अधिक ख़राब हो गया...मेरे मित्र के पिता जी ने बताया कि अब उनको नहीं बचाया जा सकता....वो समय मेरे लिए असहनीय था ...मेरे अन्दर इतनी क्षमता नहीं थी कि मैं अपने मित्र से नजर मिला सकूँ...बस एक ही रास्ता नजर आ रहा था ....और वो रास्ता था ईश्वर ...
अगले दिन सुबह उठकर माँ चन्द्रिका देवी के दर्शन के लिए गया...वापस आते ही पता लगा की दीदी के स्वास्थ्य में अद्वतीय सुधर हुआ है....मेरे विश्वास एक बार फिर अटूट हो गया ...आँखों में आंसू तो थे लेकिन ख़ुशी के ...दो दिन सब कुछ सामान्य रहा लेकिन तीसरे दिन सुबह पता लगा कि फिर से स्वास्थ्य बिगड़ गया ....लेकिन मैं पूर्ण रूप से निश्चिंत था क्यों कि मुझे ऐसा लग रहा था की कुछ भी हो जाए लेकिन मेरे राम मेरे साथ कुछ गलत नहीं कर सकते....शायद विधि का विधान कुछ और ही था शाम 5:58 पर दीदी का स्वर्गवास हो गया....जब मित्र के पिता जी ने ये बात मुझे बताई तो ऐसा लगा की मेरे जीवन का समापन हो गया....उस सत्ता पर से भी विश्वास उठ गया जिसके भरोसे मैं सब कुछ करता था....अगले 2 दिन लखनऊ में मेरे लिए बोझ लग रहे थे....ये सब कुछ कैसे हुआ कुछ नहीं पता लेकिन इन सात दिनों में बहुत कुछ पता लगा ...अपने विषय में भी और अन्य लोगों के विषय में भी ....जिस संगठन का कार्य करते हुए मुझे अवसरवादी और कट्टरवादी संज्ञाएँ दी जाती थी उस संगठन के पूर्णकालिकों एवं उनके तथाकथित राष्ट्रवाद का वास्तविक चेहरा भी सामने आया और यह भी पता लगा कि जितना खुदगर्ज मैं स्वयं को समझता था उतना नहीं हूँ ....मुझे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते ....मैं हमेशा से वही करता था जो मुझे सही लगता था .....मैं वही करता था जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती थी....मैं आज भी नहीं जानता कि जिस  इन्सान से मुझे इतना लगाव है वो मेरे बारे में क्या सोचता है और मुझे इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ता....बस इन सात दिनों में उस सत्ता पर से विश्वास उठ गया ...ऐसा नहीं है कि मेरे मुहं से अब श्री राम का नाम निकलना बंद हो गया है लेकिन मन की भावना पर आघात अवश्य हुआ है...

(इस लेख में मैंने किसी भी प्रकार की अलंकारिक भाषा या शब्द का प्रयोग नहीं किया है ...ये मात्र मेरे वो विचार हैं जो मैं किसी से नहीं कह सकता ....मुझे नहीं पता कि मैं अब कभी ईश्वर पर विश्वास कर पाऊंगा या नहीं लेकिन अब यदि विश्वास हुआ भी तो उस ईश्वर पूर्व की भांति कभी कोई अपेक्षा नहीं रखूँगा ....क्यूँ कि खुद को हारते हुए नहीं देख सकता  )

3 comments:

Unknown said...

भाई मै आपके विचारो से सहमत हूँ। कभी किसी के हाथ मई कुछ नहीं होता हम तो केवल कोशिस कर सकते है । और रही बात संगठन की तो वो आपके साथ तब तक है जब तक आप उसके लिए प्रयोग के लायक हो।

vishwa gaurav said...

सही कहा उत्कर्ष

Unknown said...

गौरव भाई मै उन दिनों के हालातो का बखान करने में असमर्थ हु ..लेकिन यह बिल्कुल सत्य है की इंसान की पहचान हालात करवाते है..भाई उन दिनों में अपने वा अपने परिवार के लिए आपके अंदर जो मैंने बेतहाशा प्रेम देखा उसे महसूस कर मुझे इस दुःख भरे समय से थोडा निजात मिल जाता है...भाई आपके प्रेम का ऋणी हो गया मै।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

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